Thursday, October 30, 2014

सम्पर्क

नज़र
कैसी है ये नज़र
देखे जब मगर
होवे सब बेअसर

जादू
है ये काशिश की
फैला है चारों और
बरसे पुरे  हम पर

कड़ियाँ
बना ये कैसे
लगे हैं जुड़ने
ठहरे उम्र भर

कभी तो पल ये
बने थे हमारे लिए
सोचूं तो समेटे हुए ज़िन्दगी के
जीना है अब उसे लेके

बिन बोले सुने सब कैसे
बिन मांगे करे सब कैसे
संपर्क हुआ अनोखा
टूटे उम्र भर

आभार ये किसका
दिया मुझे किसने
चारों और फैले
बिन बोले सब जाने

अनजाने से बने थे
पता नहीं रिश्ता उतना पुराना
फिर से जुड़े बीते हम
यही आश है अब

अस्तित्व

उपलब्धिआं तो हैं अनेक
लेकिन पाया नहीं अब तक खुद को
झुठ-सच की यह ज़िन्दगी
अहम् की आड़ में भरे हैं सब ढोंगी

दिखावे रिश्तें तो हैं मगर
उड़ने के लिये डरे सब
जाति-धर्म की परिभाषा ही
ज़न्जीर बना अस्तित्व को लूटकर

हमने तो जब जन्मा है
नसीब का तो हमें यकीन
चिड़िया है उड़ने के लिये
तो पन्ख काटें कोई क्युं

धन, यश की भूख सारी
फैली है सब रस्ते में
मन्ज़िल बिहीन होके भटके
गुणों को छिपाये कहीं

भूखे हैं सब चर्म की
होकर भी चिता का ज्ञान
अगर पाना है तो धाम
ढुन्ढो खुद में बसा राम ।


© सर्बेस्वर मेहेर, २३-अक्टुबर-२०१४