कितनी बार सोचा
कई रातें जागी
ढुंढा तनहाईयों में,
उजालों में
वही झलक जो दिखती
धुंधली सी सपनों में ।
बावरा मन तो चाहे मिलन
पर क्या तुम मिलोगी !
भटकता राही, थका मन
न जाने क्युं उसी पथ पर
चले
बेपरवाह, निडर ।
जैसे नई सुबह भर दे
नई आशा,
सपनों में वही झलक
जीवन्त करे पाने की नयी
दिशा ।
जीवन तो मिला है
कुछ करने को, देने को
लेकिन तुम्हे पाये बिना
क्या मोल है इस जीवन का
!!
© सर्बेस्वर मेहेर, २८-अक्टुबर-२०१३