Monday, October 28, 2013

क्या तुम हो?

कितनी बार सोचा
कई रातें जागी
ढुंढा तनहाईयों में, उजालों में
वही झलक जो दिखती
धुंधली सी सपनों में ।

बावरा मन तो चाहे मिलन
पर क्या तुम मिलोगी !
भटकता राही, थका मन
न जाने क्युं उसी पथ पर चले
बेपरवाह, निडर ।

जैसे नई सुबह भर दे
नई आशा,
सपनों में वही झलक
जीवन्त करे पाने की नयी दिशा ।

जीवन तो मिला है
कुछ करने को, देने को
लेकिन तुम्हे पाये बिना
क्या मोल है इस जीवन का !!


© सर्बेस्वर मेहेर, २८-अक्टुबर-२०१३

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