Sunday, September 13, 2015

ये मोतिआँ और न गिरने दो

न कुछ चाहा, न कुछ सोचा
बस उसके लिये खुदको सौँप दी !
ये प्रेम, कोमलता ही सदियों से
आपको लूटती, तड़पाती आ रही है ।

हे नारी !
और कितना साहस है दिलमें
पता है,
ये भन्डारा कभी खाली न होगा ।
ममता, प्रेम के सुमन कभी मुर्झाते नहीं
फिर ये अनमोल मोतिआँ क्युँ गिरजाते
इनको समेटे रखो, खुदके लिये ।

फरेब की ज़िन्दगी, निष्ठुर समाज में
क्या मिला, कुछ हासिल हुआ ?
सब तो खोया है, लुटाया है ।
ये सन्सार कभी सुधरेगा नहीं
सदियों से उसकी अहं के लिये
आपको बलि चढ़ाता आया है

खुदके लिये कभी समझो
ये ईश्वर कोई और है
अब अमृत की धारा को रोको
ये मोतिआँ और न गिरने दो ।

(सभी नारिओँ को समर्पित) 
             सर्वेश्वर मेहेर - १३-०९-२०१५

Sunday, January 25, 2015

Love

Confidence debile; Unstable I, recurrent
For love, I merely repent.
Rather than love, it is business
Flashed in mind many a times, I guess.
Didn't have the passion to go through
When failed to veil pain, showed it though.
Of separation, the pain
After arrival of the bygone, still remain.
How the person has deserted so!
Its presence leaves and stays though.
Of union and separation, the strange game,
Love is; Makes me happy and cry, as a name.
Let be a fence, between us, there
Even though, I crossed it mere.
The dejected, I, cries on its future fatal
And nurtures your fortune vital
In the mention of lover, co-incidence
I still succumb and smile in sense.


[Original : Urdu Shayari by Gaurav Sood
English Transation : Sarbeswar Meher\

Monday, January 12, 2015

श्मशान

श्मशान से पबित्र
हो नहीं सकता
ना कोई स्थल
ना कोई स्थान ।
न मालुम इस भूमि में
प्रज्वलित अग्नि
सदियों से
कितने जीवों के
प्राणरहित देहों की
आहुति लेती आ रही है
और लेती रहेगी ।

कितने योद्धा, राजा, साधु, नेता
भस्म हुए,
प्रज्वलित अग्नि के रुप में
महाकाल की जिव्हा में ।
घमण्ड, प्रेम, द्वेश, लाज भी
बलि चढ़े यहाँ ।
सभी को राख में ही मिलना है
सिखाती यह ज्ञा
शुन्यता की
शरीर से मुक्ति की, चेतना की ।

पुण्याश्रय है श्मशान
है स्वच्छ, निर्मल
न कोई भेदभाव है उसमें
उससे डरकर भाग नहीं सकते ।
ना पृथ्वी, आकाश, पाताल में,
कहीं भी कोई स्थान नहीं
जहाँ छिपकर तुम बच सकते ।