श्मशान
से पबित्र
हो
नहीं सकता
ना
कोई स्थल
ना
कोई स्थान ।
न
मालुम इस भूमि में
प्रज्वलित
अग्नि
सदियों
से
कितने
जीवों के
प्राणरहित
देहों की
आहुति
लेती आ रही है
और
लेती रहेगी ।
कितने
योद्धा, राजा, साधु, नेता
भस्म
हुए,
प्रज्वलित
अग्नि के रुप में
महाकाल
की जिव्हा में ।
घमण्ड,
प्रेम, द्वेश, लाज भी
बलि
चढ़े यहाँ ।
सभी
को राख में ही मिलना है
सिखाती
यह ज्ञान
शुन्यता
की
शरीर
से मुक्ति की, चेतना की ।
पुण्याश्रय
है श्मशान
है
स्वच्छ, निर्मल
न
कोई भेदभाव है उसमें
उससे
डरकर भाग नहीं सकते ।
ना
पृथ्वी, आकाश, पाताल में,
कहीं
भी कोई स्थान नहीं
जहाँ
छिपकर तुम बच सकते ।
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