Thursday, October 30, 2014

अस्तित्व

उपलब्धिआं तो हैं अनेक
लेकिन पाया नहीं अब तक खुद को
झुठ-सच की यह ज़िन्दगी
अहम् की आड़ में भरे हैं सब ढोंगी

दिखावे रिश्तें तो हैं मगर
उड़ने के लिये डरे सब
जाति-धर्म की परिभाषा ही
ज़न्जीर बना अस्तित्व को लूटकर

हमने तो जब जन्मा है
नसीब का तो हमें यकीन
चिड़िया है उड़ने के लिये
तो पन्ख काटें कोई क्युं

धन, यश की भूख सारी
फैली है सब रस्ते में
मन्ज़िल बिहीन होके भटके
गुणों को छिपाये कहीं

भूखे हैं सब चर्म की
होकर भी चिता का ज्ञान
अगर पाना है तो धाम
ढुन्ढो खुद में बसा राम ।


© सर्बेस्वर मेहेर, २३-अक्टुबर-२०१४

2 comments:

KhushiG said...

Awesome... Awesome thoughts, wonderfully put in words. That too in a poetry, Cool! Good piece of work, Sarbe!👌👏👏👏👏👍🌟

Sarbeswar Meher said...

Thanks Gayatri :)