उपलब्धिआं तो हैं अनेक
लेकिन पाया नहीं अब तक खुद को
झुठ-सच की यह ज़िन्दगी
अहम् की आड़ में भरे हैं सब ढोंगी ।
दिखावे रिश्तें तो हैं मगर
उड़ने के लिये डरे सब
जाति-धर्म की परिभाषा ही
ज़न्जीर बना अस्तित्व को लूटकर ।
हमने तो जब जन्मा है
नसीब का तो हमें यकीन
चिड़िया है उड़ने के लिये
तो पन्ख काटें कोई क्युं ।
धन, यश की भूख सारी
फैली है सब रस्ते में
मन्ज़िल बिहीन होके भटके
गुणों को छिपाये कहीं ।
भूखे हैं सब चर्म की
होकर भी चिता का ज्ञान
अगर पाना है तो धाम
ढुन्ढो खुद में बसा राम ।
© सर्बेस्वर मेहेर, २३-अक्टुबर-२०१४
2 comments:
Awesome... Awesome thoughts, wonderfully put in words. That too in a poetry, Cool! Good piece of work, Sarbe!👌👏👏👏👏👍🌟
Thanks Gayatri :)
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